स्रोत: वेतन और भत्ता पर वार्षिक रिपोर्ट, वेतन अनुसंधान एकक (PAY RESEARCH UNIT ), व्यय विभाग, केंद्रीय वित्त मंत्रालय
पिछले कुछ सालों में हमने महसूस किया है कि साल-दर-साल विभिन्न विभागों, पब्लिक सेक्टर यूनिट, विभिन्न केंद्रीय संस्थानों में, पब्लिक सेक्टर बैंकों में होने वाली नियुक्तियों में काफी कमी आयी है।
ऑल इंडिया बैंक इंप्लाइज एसोसिएशन (AIBEA) के महासचिव सी.एच. वेंकटचलम कहते हैं कि बैंकों में दो लाख से अधिक क्लास-4, क्लास-3 और ऑफिसर कैडर के पद रिक्त हैं, जिनकों बैंक भरना नहीं चाहते हैं। इसके साथ ही बैंक, कम वेतन पर कॉन्ट्रैक्ट और आउटसोर्स के माध्यम से कर्मचारी रखकर उनसे स्थायी कर्मचारियों की तरह ही काम ले रहे हैं। वहीं सरकार दूसरी तरफ सरकारी संस्थानों में दक्षता और निपुणता की बात करती हैं परन्तु वही जब रेगुलर कर्मचारियों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। ऐसे में एफिशिएंसी कैसे बेहतर हो सकती है।
सी.एच. वेंकटचलम आगे कहते हैं कि कर्मचारियों के ऊपर काम का अधिक बोझ होने के कारण फ़्रस्ट्रेशन, स्ट्रेस एंड मेंटली प्रेशर में अपने काम को समय से खत्म नहीं कर पाते हैं। वे बताते हैं कि अभी बैंकों में बिज़नेस पहले के मुकाबले काफी बढ़ गया हैं जिसके कारण कर्मचारियों के काम में ख़ासी बढ़ोतरी हुई है। बहुत सी सरकारी योजनाएं बैंको में माध्यम से ही कार्यान्वित होती हैं। ऐसे में नियमित और स्थायी कर्मचारियों का होना अधिक बेहतर होता हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि जल्द ही बैंको में खाली पड़े 2 लाख से अधिक पदों को भरा जाए ताकि कर्मचारी एफिशिएंसी के साथ काम कर पाएं।
कॉन्फ़ेडरेशन ऑफ़ सेंट्रल गवर्नमेंट एम्प्लाइज एंड वर्कर्स के महासचिव आर.एन. पाराशर कहते हैं कि केंद्र सरकार सभी विभागों, विभिन्न सार्वजनिक उपक्रमों में, ऑटोनोमस बॉडीज जैसे कि आईआईटी, आईआईएम, ISRO, बहुत से साइंटिफिक रिसर्च इंस्टिट्यूट में, बैंकों में कुल मिलाकर लगभग 24 लाख के करीब पद खाली पड़े हुए हैं, प्रत्येक विभाग में 30 से 35 प्रतिशत पोस्ट खाली हैं। किसी-किसी विभाग में तो 40 से 50 प्रतिशत तक भी पोस्ट खाली पड़ी हुई हैं। पब्लिक सेक्टर को सरकार लगातार बेचने पर आतुर है।
वे कहते हैं कि पहले पब्लिक सेक्टर में सरकार का शेयर 51 प्रतिशत से 76 प्रतिशत तक होता था और इसके आलावा मुनाफ़े में भी हिस्सा मिलता था, परन्तु जब सरकार जब अपने शेयर को बेच देगी उससे एकमुश्त पैसा तो मिल जाएगा परन्तु इससे जो रेगुलर आमदनी थी वो खत्म हो गयी है। इसके साथ ही वो आगे कहते हैं कि केंद्र कि मोदी सरकार ने कहा था कि Minimum Government, Maximum Governance जिससे लोग समझते थे शायद मंत्रिमंडल छोटा होगा जो कि काम ज्यादा करे, परन्तु अब वो परिभाषा नहीं हैं बल्कि मोदी जी कि परिभाषा यह है कि सरकारी विभाग और सरकारी संस्थान कम हों, कर्मचारी कम हों और उनसे ज्यादा से ज्यादा काम लिया जाए और बाकी वही आउटसोर्स में बंधुआ मजदूरी करवा कर काम लिया जाए जिसको न कोई जॉब सिक्योरिटी और न ही कोई सोशल सिक्योरिटी देने की जरूरत है। वे आगे कहते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी जी पेंशन खत्म कर गए और अब मोदी जी नौकरी खत्म करने पर तुले हैं।
राज्यों में पड़े खाली पद
राज्यों में खाली पदों को लेकर तो मोदी सरकार बिलकुल चुप है और राज्य की रिक्तियों की संख्या घोषित करने से इनकार करती है, क्योंकि उसका मानना है कि यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। अकेले उत्तर प्रदेश में राज्य बजट दस्तावेजों के अनुसार 13 लाख पद स्वीकृत हैं जिनमें 4 लाख से अधिक खाली हैं।
राज्यों में सरकारी पदों पर चर्चा करते हुए अखिल भारतीय राज्य सरकार कर्मचारी महासंघ (AISGEF) के महासचिव सुभाष लांबा बताते हैं कि जनसंख्या और काम के हिसाब से सभी राज्यों में 30 लाख से अधिक पद खाली पड़े हैं। इतनी बड़ी संख्या में पद खाली होने के चलते वर्तमान में नियुक्त कर्मचारी अतिरिक्त बोझ के चलते संतोषप्रद सर्विसेज नहीं दे सकते हैं। राज्य सरकार खाली पदों पर नियुक्ति न करके पैसों को बचाती है, क्योकि पदों को भरने के लिए राज्यों को बड़ी धनराशि बजट में चाहिए होगी, जिसको बचाने के लिए राज्य स्थायी नियुक्तियों कि जगह संविदा (कॉन्ट्रैक्ट) पर नियुक्तियां करते हैं, और जब संविदा कर्मचारियों कि जॉब सिक्योरिटी नहीं होती है ऐसे में वह स्थायी कर्मचारियों कि तरह काम भी नहीं करेंगे और उनकी उस तरह से जिम्मेदारी भी नहीं होती है। स्थायी नियुक्तियां न देने से हर्जाना सबसे अधिक वर्तमान में अतिरिक्त बोझ के साथ काम करते कर्मचारी और आम जनता वहन करती है, परन्तु इन सबके बावजूद राज्य इसको गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। पिछले कुछ सालों काफी संख्या में कर्मचारी रिटायर हुए हैं जिसके चलते खाली पदों कि संख्या में ख़ासा इजाफा हुआ हैं क्योंकि इन खाली पदों पर स्थायी भर्तियां नहीं हुई हैं। यह जो पद खाली हैं वह उन स्वीकृत पदों के हैं जोकि काफी अरसे पहले कि जरूरतों को ध्यान में रखते हुए स्वीकृत हुए थे, आज जब जनसंख्या में काफी वृद्धि है ऐसे में स्वीकृत पदों की ही संख्या में बढ़ोत्तरी करने कि जरूरत हैं।
स्वीकृत पदों कि संख्या बढ़ाए जाने के सवाल पर सुभाष लांबा कहते हैं कि वर्तमान जनसंख्या और काम को देखते हुए करीब 15 से 20 लाख नए पदों का सृजन राज्यों में होना चाहिए।
सरकारी तंत्र में स्थायी नियुक्तियां इतनी महत्वपूर्ण क्यों?
कोरोना महामारी ने यह साबित कर दिया है कि केवल सरकारी तंत्र ही मजबूती से इस त्रासदी के दौरान लड़ाई लड़ रहा था और उसमें भी ख़ासकर एसेंशियल सर्विसेज सेक्टर जिसमें स्वास्थ्य, पुलिस, बैंक लगातार जनता को सुविधाएं मुहैया करवा रहे थे परन्तु प्राइवेट सेक्टर तो कहीं दिखाई भी नहीं दे रहा था, या जो था भी वो बस अपना मुनाफ़ा कमाने में लगा हुआ था जिस कारण से बहुसंख्यक आम लोगों के लिए प्राइवेट सेक्टर पहुंच से बहुत दूर था, वहीं दूसरी तरफ सरकारी तंत्र में कर्मचारियों और सुविधाओं की कमी से वे दर दर भटकते हुए दिखाई दिए।
शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे प्रमुख क्षेत्रों से सबसे चौंकाने वाले जो रिक्त पदों के आंकड़े हैं उनका सबसे बड़ा कारण बहुत ही कम फंडिंग और फंड कटौती है जिसके कारण लाखों शिक्षक स्कूलों और कॉलेजों से गायब हैं, और यहां तक कि प्रतिष्ठित संस्थानों से भी, IIM और IIT | इसके साथ ही मोदी शासन के दौरान पढ़ाई-सीखने के स्तर में गिरावट आई है, जिसको विस्तृत रूप से ‘असर’ (शिक्षा रिपोर्ट की वार्षिक स्थिति) में देख सकते हैं। शिक्षा प्रणाली की यह कमी भारत के भविष्य को एक बड़े अंधेरे में डाल रही है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कार्यक्रम में समान रूप से लापरवाही भरा दृष्टिकोण दिखाई दे रहा है जो भारतीय लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने वाला मुख्य कार्यक्रम है। रूरल हेल्थ सर्वे बताता है कि 1.68 लाख पद प्रमुख स्वास्थ्य कर्मियों जिनमे विशेषज्ञ, सामान्य चिकित्सक, नर्स, तकनीशियन इसके अलावा अन्य पैरामेडिकल स्टाफ के खाली पड़े पद शामिल हैं। इसके आलावा 1.76 लाख आंगनवाड़ी श्रमिकों और सहायकों के पद खाली हैं, जो पोषण और चाइल्ड केयर सेवाएं प्रदान करते हैं, जिन्हे नियुक्त नहीं किया गया हैं। NFHS-5 के आंकड़े बताते है पिछले पांच सालों में ठिगने (उम्र के हिसाब से कम लंबाई), कमजोर (लंबाई के हिसाब से कम वजन) और कुपोषित (उम्र के हिसाब से कम वजन) बच्चों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, बच्चों के स्वास्थ्य में एक दशक के सुधार के उलट यह स्थिति बनी है। इसके साथ ही अदालतों में बड़ी संख्या में पद रिक्त होने के कारण 4.28 करोड़ कोर्ट केस लंबित हैं।
अर्थशास्त्री क्या कहते हैं
सरकारी पदों पर डेवलपमेंट इकोनॉमिस्ट दीपा सिन्हा कहती हैं कि अभी जो देश के हालत हैं उसमे खाली पड़े पदों को भरना बहुत बढ़िया कदम होगा क्योकि अभी Demand Deficit है। लोगों के पास नौकरिया नहीं हैं, यह जो पद खाली हैं इनमे हर स्तर के कर्मचारी होंगे और यह ऐसे लोग हैं, यदि इनके हाथ में पैसे आएंगे तो ये लोग खर्च भी करते हैं और यह लोग जो चीजे खरीदते हैं वो कोई बहुत महंगी या इम्पोर्टेड चीजे नहीं होती बल्कि लोकल चीजे होती हैं जिससे और भी रोजगार बढ़ेंगे और इकॉनमी को बूस्ट मिलेगा।
वे आगे कहती हैं कि अभी कोरोना काल में सरकार राहत पैकज दिए जाने की बात कहती रही है परन्तु इससे सबसे ज्यादा फायदा केवल कॉर्पोरेट को ही होगा, बल्कि यदि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना हैं तो तत्काल बिना विलम्ब किये खाली पदों को भरना सही मायनों में बढ़िया राहत पैकज होगा, जिससे होगा यह कि यह अर्थव्यवस्था के बढ़ने में बहुत ही सहायक होगा और इसको हम अर्थशास्त्र कि भाषा में कहे तो यह इकॉनमी में Multiplier का काम करेगा और सर्विसेज कि क्वालिटी भी बढ़ेगी और लोगों को रोजगार मिलने से न केवल अर्थव्यवस्था बढ़ेगी बल्कि इससे देश में स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण आदि अनेक क्षेत्र बेहतर होंगे।
भारत की जनवादी नौजवान सभा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रीति शेखर कहती हैं कि इतनी बड़ी संख्या में जब लोग बेरोजगार हैं तब इतने ज्यादा पद का खाली होना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। वे बेरोजगारी को एक महामारी (Epidemic) कि तरह बताती हैं। उनका कहना है कि समाज का कोई ऐसा तबका नहीं हैं जो इससे अछूता हो। प्रीति शेखर कहती हैं पदों का ऐसे खाली रहना कोई नई चीज नहीं है बल्कि 1990-91 से देश में नई इकनोमिक पॉलिसी आयी है तब से सरकारें ऐसा मानने लगी हैं कि ज्यादा लोगों को रेगुलर तौर पर रखने कि जरूरत नहीं हैं और सभी सरकारों ने लोगों को कम करना शुरू किया, और ये खाली पद उन्ही नवउदारवादी नीतियों का हिस्सा हैं।
युवा हल्ला बोल के राष्ट्रीय संयोजक अनुपम कहते हैं कि पदों का ऐसे खाली रहना कोई प्रशासनिक गड़बड़ी या खामी मात्र नहीं है बल्कि यह सरकार कि नीतिगत समझ है कि पदों को भरना नहीं है। हमारे देश कि इतनी बड़ी युवा आबादी है और हम इतना ज्यादा बेरोजगारी को झेल रहे हैं यदि कोई सेंसिटिव सरकार होती तो वो अपने युवाओं कि समस्या को प्राथमिक स्तर पर समझते हुए युद्ध स्तर पर न केवल स्वीकृत पदों को भरती बल्कि जरूरत के मुताबिक नए पदों का भी सृजन करती।
देश में हमारे जो स्वीकृत पद हैं वे पहले से ही कम हैं। यदि हम इनको पूरी तरह से भर भी देंगे तब भी यह अंतर्राष्ट्रीय मानकों से कहीं कम ही होंगे। इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों को तत्काल खाली पदों को भरना चाहिए और इसके साथ ही स्वीकृत पदों को वास्तविक जरूरत के आधार पर बढ़ाया जाना चाहिए। इन खाली पदों के लिए आपको कोई नई चीज नहीं करनी है। न ही संसद से कानून पारित करना है। सरकार को जो सालों से अभी तक कर लेना चाहिए था बस वही करना है कि उसे जनता के प्रति अपनी प्राथमिक ड्यूटी पूरी करनी है।
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